Tuesday, May 19, 2009

कौरव कौन, कौन पांडव / अटल बिहारी वाजपेयी

कौरव कौन
कौन पांडव,
टेढ़ा सवाल है|
दोनों ओर शकुनि
का फैला
कूटजाल है|
धर्मराज ने छोड़ी नहीं
जुए की लत है|
हर पंचायत में
पांचाली
अपमानित है|
बिना कृष्ण के
आज
महाभारत होना है,
कोई राजा बने,
रंक को तो रोना है|

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए / दुष्यंत कुमार

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

Monday, May 18, 2009

Kaash ye lamhe thahar jaayen.. Parveen Shaakir

sabz maddham roshanii men surkh aanchal kii dhanak
sard kamare men machalatii garm saanson kii mahak

baazuuon ke sakht halqe men ko_ii naazuk badan
silvaten malabuus par aanchal bhi kuchh Dhalakaa huaa

garmii-e-rukhsaar se dahakii hu_ii Thaandii havaa
narm zulfon se mulaayam ungaliyon kii chher chhaar

surkh honthon par sharaarat ke kisii lamhen kaa aks
reshamii baahon men chuuDii kii kabhii maddham dhanak

sharmagiin lahajon men dhiire se kabhii chaahat kii baat
do dilon kii dhaDakanon men guuNjatii thii ek sadaa

kaanpate honThon pe thii Allaah se sirf ek duaa
kaash ye lamhe Thahar jaayen Thahar jaayen zaraa

कपोलों को छुआ

कपोलों को छुआ तो कुम्हला गया
हुस्न की बानगी फूल जतला गया

फुलवारी में होने लगी अब चर्चा
एक चेहरा क्या यह बतला गया

अनेकों रंग और खुश्बू का था नाज़
एक सिहरन से कौन नहला गया

हुस्न की बगिया से मिले इमदाद
इसी चाहत में चमन पगला गया

बचपन

कई दिनो से सोच रही थी, बचपन को मैं खोज रही थी .
निश्चल, खिलखिलाता बचपन, चिंताओ से परे वो बचपन.

वो मिट्टी के ढेर में घर बनाना, गीले हाथ फ्रॉक को पोंछना .
दादी से खूब कहानी सुनना, रजाइयों में लुका छिपी खेलना.

माँ कितनी अच्छी चीजें बनाती, डिब्बो में फिर इधर उधर छुपाती,
सोते बड़े जब आती दोपहर, पहुँच जाते तब हम रसोईघर .

डिब्बा मिलता, शोर मच जाता, मानो कोई किला हो जीता,
खो जाते फिर मीठे स्वाद में, मिल कर जीत की खुशी मनाते.

मूँछो वाले अंकल क़ा डर, बहुत सारे होमेवर्क क़ा डर,
छुट्टियों के बाद स्कूल जाने क़ा डर, दादाजी के गुस्से क़ा डर.

पहली बारिश में छत पर फुदकना, छींकते हुएं फिर नीचे आना .
गर्मियों में चढ़ कर पेड़ पर, लटक - लटक कर नीचे कूदना.

दौड़ कर गिरते, घुटने छीलते, रोते हुए घर को आते,
डेटॉल के फिर फाहे आते, माँ के आँसू समझ ना आतें.

बचपन को मैं याद कर रही थी, बड़ी क्यों हुई सोच रही थी.
ठन्न ….. ठन ….ठन…. आवाज़ आई अचानक कोई,
मानो जागी मैं सपनो से , उठ खड़ी और भागी रसोई …..

देखा तो डिब्बा और केक फर्श पर पड़ा था….
कुछ मुँह में कुछ हाथ में लिए मेरा बेटा खड़ा था .

हाथ और माथे पर, चिपके थे कुछ स्टीकर रंग बिरंगे….
बंधी बेल्ट थी कमर पे,खोस रखे थे जिसमे कुछ डंडे

किचन काऊंटर पर वो खड़ा था…..
क्यां मैं बोलूँगी, देख रहा था .
डाँटू ये मैं सोच रही थी
पर होंठो पे मुस्कान, बरबस आ रही थी .

देख कर वो नीचे कूदा, मुझसे लिपट कर फिर वो बोला ….
मम्मा, मैं जासूस बना था …. केक छुपा था, उसे ढूंढ रहा था .

हँ स पड़ी मैं, संग उसके उसकी जीत माना रही थी ……
बचपन मेरे पास ही था जिसको इतना ढूंढ रही थी !!

किताब

हैरत है।
अक्षर नहीं हैं आज किताब पर

कहाँ चले गए अक्षर
एक साथ अचानक?

सबेरे सबेरे
काले बादल उठ रहे हैं चारों ओर से
मैली बोरियां ओढ़कर सड़क की पेटियों पर
गंदगी के पास सो रहे हैं बच्चे
हस्पताल के बाहर सड़क में
भयानक रोग से मर रही है एक युवती
पैबन्द लगे मैले कपड़ों में
हिमाल में ठंड से बचने की प्रयास में कुली
एक और प्रहर के भोजन के बदले
खुदको बेच रहे हैं लोग ।

मैं एक एक करके सोच रहा हूँ सब दृश्य
चेतना को जमकर कोड़े मारते हुए,
खट्टा होते हुए, पकते हुए
खो रहा हूँ खुद को अनुभूति के जंगल में ।

कितना पढूँ ? बारबार सिर्फ किताब
समय को टुकडों में फाड़कर
मैं आज दुःख और लोगों के जीवन को पढूंगा ।

अक्षर नहीं हैं किताब पर आज।;;;;;;;;;;

एक पुरानी किताब के पन्नों पे आज उंगली चलाई

एक पुरानी किताब के पन्नों पे आज उंगली चलाई
जाने कहाँ से कुछ धीमी आवाज़ें आई

आवाज़ एक जानी पहचानी सी
आवाज़ें कुछ बरसों पुरानी सी

एक हँसी थी दूर से आती हुई
गूंजती थी दिल को भरमाती हुई

कितनी ही बातें थी उस आवाज़ में
जाने क्या कह गई अपने ही अंदाज़ में

एक संगीत खामोशी की नींद तोड़ता हुआ
पुरानी ग़ज़लों का दुशाला ओढ़ता हुआ

कुछ सवाल उठे उचक कर ऐसे
नींद से कोई बच्चा जागता हो जैसे

बूढ़ी पंखुड़ियों से बुझी राख टटोल रहा था
उस किताब में दबा एक गुलाब बोल रहा था

मेरा हाथ पकड़ कर वो मुस्कुराने लगा
किन्ही बिछ्ड़े रास्तों पर ले जाने लगा

कुछ सोच कर मैंने उसका हाथ झटक दिया
किताब बंद कर उसका मुंह भी बंद कर दिया

एक माचिस की तीली से समुंदर क्या जलाओगे,

एक माचिस की तीली से समुंदर क्या जलाओगे,
यादों को तो भुला दोगे पर लम्हों को कैसे मिटाओगे,

कई तूफानों से गुज़री है मेरी मोहब्बत,
इस मासूम हवा से कैसे प्यार का दिया बुजाओगे,

मेंहदी से लिखा है मेरी हथेली पे खुदा ने नाम् तेरा,
कैसे फिर तक़दीर में किसी और का नाम लिखाओगे,

कर बैठा है भरोसा जमाना तेरी बेवफाई का,
रूह को अपनी इस बात का कैसे यकीन दिलाओगे,

आईने से जूठ बोलने की आदत है तुम्हारी,
अपनी बेबसियों का मगर दिल को क्या दिलासा बताओगे ,

वीरानो में तो खामोश दीवारों से सच बोल भी दोगे,
महफिलों में तनहा दिल को क्या सम्जाओगे,

रोक लोगे मुझको अपने पास आने से माना
खुद को मुझसे दूर जाने के लिए कैसे मनाओगे…

Heer ……Amrita Pritam

Aj aakhaan Waris Shah noon kidre kabraan vichon bol
Te uTh kitaab-e-ishq daa koi aglaa warkaa phol

Ik royee see dhee Punjab dee toon likh likh maare wain
Aj lakaan dheeyaan rondeeyan tainun Waris Shah noon kehan

UTh daradmandaan deyaa dardeeyaa aj tak aapnaa Punjab
Aj bele laashaan viCheeyaan te lahu dee bharee Chanaab

Aj dharti te lahu vassyaa te kabraan pahiyaan chon
Te preet deeyaan shahzaadeeyaan aj vich majaare ron

Aj sabhe Qaido ban gaye husan ishq de chor
Te aj kithon lehavaan lab ke main Warish Shah ik hor

Aj aakhaan Waris Shah noon kidre kabraan vichon bol
Te uTh kitaab-e-ishq daa koi aglaa warkaa phol

Sunday, May 17, 2009

Hai kabhi woh cheekhta

Hai kabhi woh cheekhta

aur sisakta hai koi

chupke chupke mere andar

Rota rehta hai koi.

Aag seeney mein lagi aur

phir dhuaan sa ban gayi

meri aankhon mein diya sa

jalta rehta ha koi.

Kis qadar khamosh hoon

par kis qadar hoon muztarib

aandhiyan chalti hein

aur socha karta hai koi.

koun jane mere dil mein

kaunsa lava hai……

geeli rakh ki tarah

yeh dil lagta hai koyi.

Khud se begane huye

aur khushi bhi jati rahi

aur isee alam mein khud ko

dhoonda karta hai koi

Sar se le ker paon tak

khud ko jala dala hai aur

bas dhuaan sa ban gaya

aur urta phirta hai koi.

main nazar se pee rahaa hoon


main nazar se pee rahaa hoon ye samaa badal na jaaye
na jhukaao tum nigaahein kaheen raat Dhal na jaaye

mere ashk bhi hain is mein ye sharaab ubal na jaaye
mera jaam chhoone vaale teraa haath jal na jaaye

abhi raat kuchh hai baaqi na utha naqaab saaqi
tera rind girte girte kahin phir sambhal na jaaye

meri zindagi ke malik mere dil pe haath rakhna
tere aane ki Khushi mein mera dam nikal na jaaye

mujhe phookne se pahle mera dil nikaal lena
ye kisi ki hai amanat kahin saath jal na jaaye



By Janaab Anwar Mirzapuri

अनन्त विश्वास

बरसों पहले नानी ने
माँ से कहा था
तुम फलांगना चाहती हो पहाड़
झाँकना चाहती हो बादलों के पार
पाना चाहती हो सागर के पानियों की थाह
मुई! तुझे कैसे समझाऊँ ?
आकाश से लटके रहते हैं कुछ उक़ाब
पलक झपकते ही पंजों में दबोच ले जाएँगे
पहाड़ों की खोहों में छिपे कुछ जिन्न
सूँघ लेंगे तुम्हारे जिस्म की ख़ुश्बू.
सागर के पानियों में बैठे हैं
कुछ घड़ियाल.
सच तो यह है कि पानी , पहाड़
आकाश किछ भी नहीं है
औरत के लिए.
उसे झूलने हैं केवल इन्द्रधनुषी झूले.
माँ ने अपनी नन्हीं -सी छाती में सहेज लिया था
यह कड़वा-सा सच.
बरसों बाद माँ ने अपनी
बेटी से कहा
तुझे फलाँगने हैं पहाड़
तुझे जाना है बादलों के पार
तुझे पानी है पानियों की थाह
तुझे नहीं झूलने इन्द्रधनुषी झूले.
तुझे लिखना है आकाश की छाती पर
अपने तर्जनी से एक इतिहास
तुझे पालना है सागर की कोख में
अनन्त विश्वास
तुझे फलाँगना है हिमालय का अभिमान
तुझे तोड़नी है मिथक
औरत की हर सफलता का रास्ता
जिस्म से हो कर नहीं गुज़रता.

जिंदगी में सदा मुस्कुराते रहो

जिंदगी में सदा मुस्कुराते रहो ,
फासले कम करो दिल मिलाते रहो ।
दर्द कैसा भी हो आखें नम न करो ,
रात काली सही कोई गम न करो ,
एक सितारा बनो और जगमगाते रहो .
बांटना हैं अगर बाँट लो हर खुशी ,
दिल की गहराई में गम छुपाते रहो ,
अश्क अनमोल हैं खो न देना कहीं ,
इसको हर आँख से तुम चुराते रहो .

ढाई अक्षरों की भाषा

ढाई अक्षरों की भाषा
जिन्दगी बन गई
ना तूने कुछ कहा
ना मैने कुछ सुना
चाँद भी चुपचाप देखता
सितारे भी टिमटिमाते रहे
आँखों की भाषा
एक दुसरे को पडते रहे
दूर खामोशी को
लफ्जों में समेटे रहे
अजीब मिलन था दो रूह का
हवाओं ने भी साथ दिया
खामोशी का दायरा ना तोड़ा
लफ्जो के कहे बिना
आँखों की भाषा ने जोड़ा

हँसती – खिलती सी गुड़िया थी

तेरे हाथों से छूटी जो, मैं मिट्टी से हम-वार हुई
हँसती – खिलती सी गुड़िया थी, इक धक्के से बेकार हुई

ज़ख़्मों पर मरहम देने को,जब उसने हाथ बढ़ाया तो
घायल थी मैं ना उठ पाई, वो मरहम भी तलवार हुई

ये गरम फ़ज़ा झुलसाएगी, पाँवों में छाले लाएगी
देती थी साया अब तक जो, अब दूर वही दीवार हुई

लम्हों की बातों में जिसने सदियों का साथ निभाया था
ये कुरबत फिर मालूम नहीं, क्यूँ उसके दिल पर भार हुई

अब तो हैं खामोश ये लब, सन्नाटा है ज़हन में
तन्हाई इस महफ़िल की , महसूस मुझे इस बार हुई

साथ गुज़ारे लम्हे अब, बन फूल महकते दामन में
करती शुकराना उन लब का , जिससे मैं इक प्यार हुई