तेरे हाथों से छूटी जो, मैं मिट्टी से हम-वार हुई
हँसती – खिलती सी गुड़िया थी, इक धक्के से बेकार हुई
ज़ख़्मों पर मरहम देने को,जब उसने हाथ बढ़ाया तो
घायल थी मैं ना उठ पाई, वो मरहम भी तलवार हुई
ये गरम फ़ज़ा झुलसाएगी, पाँवों में छाले लाएगी
देती थी साया अब तक जो, अब दूर वही दीवार हुई
लम्हों की बातों में जिसने सदियों का साथ निभाया था
ये कुरबत फिर मालूम नहीं, क्यूँ उसके दिल पर भार हुई
अब तो हैं खामोश ये लब, सन्नाटा है ज़हन में
तन्हाई इस महफ़िल की , महसूस मुझे इस बार हुई
साथ गुज़ारे लम्हे अब, बन फूल महकते दामन में
करती शुकराना उन लब का , जिससे मैं इक प्यार हुई
Sunday, May 17, 2009
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