कई दिनो से सोच रही थी, बचपन को मैं खोज रही थी .
निश्चल, खिलखिलाता बचपन, चिंताओ से परे वो बचपन.
वो मिट्टी के ढेर में घर बनाना, गीले हाथ फ्रॉक को पोंछना .
दादी से खूब कहानी सुनना, रजाइयों में लुका छिपी खेलना.
माँ कितनी अच्छी चीजें बनाती, डिब्बो में फिर इधर उधर छुपाती,
सोते बड़े जब आती दोपहर, पहुँच जाते तब हम रसोईघर .
डिब्बा मिलता, शोर मच जाता, मानो कोई किला हो जीता,
खो जाते फिर मीठे स्वाद में, मिल कर जीत की खुशी मनाते.
मूँछो वाले अंकल क़ा डर, बहुत सारे होमेवर्क क़ा डर,
छुट्टियों के बाद स्कूल जाने क़ा डर, दादाजी के गुस्से क़ा डर.
पहली बारिश में छत पर फुदकना, छींकते हुएं फिर नीचे आना .
गर्मियों में चढ़ कर पेड़ पर, लटक - लटक कर नीचे कूदना.
दौड़ कर गिरते, घुटने छीलते, रोते हुए घर को आते,
डेटॉल के फिर फाहे आते, माँ के आँसू समझ ना आतें.
बचपन को मैं याद कर रही थी, बड़ी क्यों हुई सोच रही थी.
ठन्न ….. ठन ….ठन…. आवाज़ आई अचानक कोई,
मानो जागी मैं सपनो से , उठ खड़ी और भागी रसोई …..
देखा तो डिब्बा और केक फर्श पर पड़ा था….
कुछ मुँह में कुछ हाथ में लिए मेरा बेटा खड़ा था .
हाथ और माथे पर, चिपके थे कुछ स्टीकर रंग बिरंगे….
बंधी बेल्ट थी कमर पे,खोस रखे थे जिसमे कुछ डंडे
किचन काऊंटर पर वो खड़ा था…..
क्यां मैं बोलूँगी, देख रहा था .
डाँटू ये मैं सोच रही थी…
पर होंठो पे मुस्कान, बरबस आ रही थी .
देख कर वो नीचे कूदा, मुझसे लिपट कर फिर वो बोला ….
मम्मा, मैं जासूस बना था …. केक छुपा था, उसे ढूंढ रहा था .
बचपन मेरे पास ही था जिसको इतना ढूंढ रही थी !!
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