Saturday, August 8, 2009

मगर गरीब कि जान का मुआवजा कम है/ नवाज़ देवबन्दी


वो अपने घर के दरीचों से झांकता कम है
ताल्लुकात तो अब भी है राब्ता कम है

तुम उस खामोश तबीयत पे तन्ज़ मत करना,
वो सोचता है बहुत और बोलता कम है

फिजूल तेज़ हवाओं को दोष देता है,
उसे चराग जलाने का हौसला कम है

मैं अपने बच्चों के खातिर ही जान दे देता ,
मगर गरीब कि जान का मुआवजा कम है.....

1 comment:

  1. बिला सबब ही मियां तुम उदास रहते हो
    तुम्हारे घर से तो मस्जिद का फासला कम है

    Written by Dr Nawaz Deobandi
    Kindly acknowledge the POET

    Regards
    Dr. Atul Tyagi

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