वो अपने घर के दरीचों से झांकता कम है
ताल्लुकात तो अब भी है राब्ता कम है
तुम उस खामोश तबीयत पे तन्ज़ मत करना,
वो सोचता है बहुत और बोलता कम है
फिजूल तेज़ हवाओं को दोष देता है,
उसे चराग जलाने का हौसला कम है
मैं अपने बच्चों के खातिर ही जान दे देता ,
मगर गरीब कि जान का मुआवजा कम है.....
ताल्लुकात तो अब भी है राब्ता कम है
तुम उस खामोश तबीयत पे तन्ज़ मत करना,
वो सोचता है बहुत और बोलता कम है
फिजूल तेज़ हवाओं को दोष देता है,
उसे चराग जलाने का हौसला कम है
मैं अपने बच्चों के खातिर ही जान दे देता ,
मगर गरीब कि जान का मुआवजा कम है.....
बिला सबब ही मियां तुम उदास रहते हो
ReplyDeleteतुम्हारे घर से तो मस्जिद का फासला कम है
Written by Dr Nawaz Deobandi
Kindly acknowledge the POET
Regards
Dr. Atul Tyagi